Vol.14, Issue 1 & 2
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Vol.14, Issue 1 & 2

Vol.14, Issue 1 & 2

SHODH SANCHAYAN

Vol.14, Issue.1 & 2, 15 Jul, 2023

ISSN  2249 – 9180 (Online)

Bilingual (Hindi & English)
Half Yearly

Print & Online

Dedicated to interdisciplinary Research of Humanities & Social Science

An Open Access INTERNATIONALLY INDEXED PEER REVIEWED REFEREED RESEARCH JOURNAL and a complete Periodical dedicated to Humanities & Social Science Research.

मानविकी एवं समाज विज्ञान के मौलिक एवं अंतरानुशासनात्मक शोध पर  केन्द्रित (हिंदी और अंग्रेजी)

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Index/अनुक्रम

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आजादी के 75 वर्ष बाद भी हम अपने दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान, सामाजिक निकटता एवं समन्वय से कोसों दूर हैं। भारत के उत्थान के लिए हमें अपने ज्ञान को जानना, समझना और फैलाना बहुत जरूरी है। प्राचीन काल से ही भारत अपने धार्मिक ग्रंथों, संस्कृति और बहुसंस्कृतिवाद के लिए प्रसिद्ध रहा है। ताकि स्वस्थ भारत और संस्कृति की पुनः स्थापना हो सके। इस शिक्षा नीति की परिकल्पना है कि एक बच्चे को वैश्विक नागरिक तभी माना जा सकता है जब वह अपने ज्ञान, व्यवहार, बौद्धिक कौशल के माध्यम से सतत विकास, समृद्ध आजीविका और वैश्विक कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो सके। इस दृष्टि को साकार करने के लिए मौजूदा ज्ञान, परंपरा, रीति-रिवाजों, विचारों और मूल्यों को सुविचारित ज्ञान के साथ एकीकृत करना होगा न कि एक अलग विषय के रूप में। यदि ज्ञान को बालक के विकास में स्थापित करके प्रदान किया जाए तो भी ज्ञान के अनुरूप होना संभव है। इस लेऽ में शोधकर्त्री ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान परंपरा की प्रासंगिकता का विश्लेषण किया है।एकीकृत करना होगा न कि एक अलग विषय के रूप में।

When we turn the pages of history, we find the roots of discrimination based on Gender. Indian Society is a patriarchal society where Women were always treated inferior to men, they were subordinated to men. Since childhood women have been conditioned to owe their allegiance to men be it her father, brother or husband. It is very unfortunate to know that women themselves have taught girls in their transformative years to confirm to the norms of the Indian Patriarchal Society. Gender Equality has been a utopia for Indian Society.

डॉ. रामसनेही लाल शर्मा यायावरमूल रूप से नवगीतकार हैं। यही कारण है कि डॉ. यायावर जी द्वारा सृजित प्रत्येक विधा में नवगीत के तत्वों को सहज ही खोजा जा सकता है। एक कटु यथार्थ यह भी है कि जो व्यक्ति जिस क्षेत्र विशेष में महारत रखता है, तो उसका प्रभाव उस व्यत्तिफ़ विशेष द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य पर अवश्य ही परिलक्षित होता है।परिणामस्वरूप डॉ. यायावर जी की प्रत्येक काव्यात्मक रचना में नवगीत के तत्व विराजमान रहते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में डॉ. यायावर जी की प्रथम सजल कृति तृषा का आचमनतथा द्वितीय सजल कृति जलती रेत: दहकता मरुथलमें भी नवगीत के तत्व विराजमान हैं।

भारतीय पत्रकारिता का इतिहास इस बात का साक्षी है कि वह सच, ईमानदारी और निष्पक्षता का जीता जागता उदाहरण रही है, परंतु भूमंडलीकृत हुई इस दुनिया में आज की पत्रकारिता में स्वार्थलोलुपता, बाजारीकरण और सत्ता की पैरोकारी अपने पूरे मकड़जाल के साथ घुस चुकी है। साफ लफ्रजो में कहें तो पत्रकारिता अब एक धंधा बन चुकी है। पत्रकारिता के इस निकृष्ट चरित्र को प्रवीण कुमार ने अपनी लंबी कहानी छबीला रंगबाज का शहरमें कथा के माध्यम से उसकी साहित्य अभिव्यक्ति की है। कहानी में उन्होंने दिखाया है कि पत्रकारिता आज सनसनी फैलाने में और फेक न्यूज परोसने में किस कदर लिप्त हो चुकी है। कहानी का प्रमुऽ पात्र छबीला जो कि एक मासूम बच्चा है, उसे इस व्यावसायिक पत्रकारिता ने अपने स्वार्थ के लिए एक खूंखार अपराधी घोषित कर दिया है। प्रवीण कुमार के अनुसार वर्तमान दौर में पत्रकारिता सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं कर रही बल्कि मनोरंजन और सनसनी का पर्याय बन चुकी है।

इस शोध पत्र में वाल्मीकि में काव्य चेतना स्फुरण , उनके प्रकृति प्रेम, विश्व भूगोल समाज,राजनीति ,धर्म, शिक्षा, कला कौशल, विज्ञान, उनके जातीय पहचान उनके द्वारा रचित रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव समूचे एशियाई देशों पर पड़ना वाल्मीकि आश्रम प्रत्यभिज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रकाश डाला गया है।

झारखंड के संथाल परगना की रहने वाली निर्मला पुतुल संथाल आदिवासी समाज की नई सुशिक्षित पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं। उनकी कवितायें आदिवासी समाज की पीड़ा, अत्याचार और शोषण के खिलाफ अपनी मुहिम को बड़ी ही शिद्दत के साथ उठाती हैं। निर्मला पुतुल का काव्य संग्रह नगाडे की तरह बजते शब्दयह घोषित करता है कि जंगल में शहरी आदमी घुस आया है, जिससे सावधान रहने की जरूरत है। यह शहरी आदमी नहीं बल्कि शोषण का जीता जागता स्वरूप है। इसकी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर है। निर्मला का आरोप है ऐसे सत्ताधारी भेड़िए दबे पाँव आदिवासी संस्कृति को देने के बहाने तो आते हैं लेकिन उनकी मंशा में सब काला ही है। वे हमारे नृत्य की प्रशंसा करके हमारी हर कला को धरोहर बताते हैं, लेकिन वे सब सौदागर हैं जो जंगल की लकड़ी और आदिवासी कला, संस्कृति, नृत्य आदि का कारोबार चलाते हैं।

भारतीय संस्कृति का मूल ग्रामीण परिवेश रहा है। ग्रामीण संस्कृति में लोकजीवन की अभिव्यक्त होती है। गीत, संगीत, नृत्य, राग-रंग लोकजीवन का प्राण है। भारत की सांस्कृतिक वैविध्यता के कारण लोकसंगीत अपने बृहद विशालकाय स्वरूप में लोक में व्याप्त है और इसी में रचा-बसा है जल, जीवन, और जंगल को सहेजने की कला या संदेश। प्रकृति ही मानव को उदारता सहानुभूति, सहिष्णुता आदि का पाठ पढ़ाती है। लोकगीतों में प्रकृति की पूजा और उसके माध्यम से भावों को बड़े ही सुन्दरतम् ढंग से प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऐसे ही प्राचीन युगों में कला, संगीत और साहित्य, साथ ही नृत्य - संगीत की कला का विकास वैदिक काल के बाद तक जारी है और वे अनेक रूप - आकारों में सभी  साहित्यों में भी विद्यमान है।

‘शरीरमाद्य खलु धर्मसाधन’ हमारी परम्परा में एक महत्वपूर्ण उक्ति है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष रूपी पुरुषार्थ की प्राप्ति का साधन शरीर है। अतः शरीर को साधन प्राप्ति योग्य बनाने पर सदैव बल दिया गया है। यही कारण है कि समाधि के मार्ग में आसन व प्राणायाम भी आते है। हमारी ज्ञान परम्परा में शारीरिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित योग व क्रीड़ा का महत्वपूर्ण स्थान है।

चेतना को लोक कल्याणकारी चेतना बनाने हेतु, मानव धर्म को निरंतर मानव हित के लिए आडंबर रहित बनाने हेतु संतों का जन्म हुआ। जिन्होंने निम्न समझी जाने वाली जातियों को पिछड़ी से अगड़ी बनाने का अथक प्रयास किया। कबीर, नानक, एवं दादूदयाल आदि की परंपरा में पंथनिरपेक्ष दादूपंथी संत नारायणदास ने मानव धर्म को आधार बनाकर अपने ग्रंथों एवं उपदेशों में लोक कल्याण एवं समन्वय की भावना को सर्वोपारी दर्जा प्रदान किया। कवि सगुण-निर्गुण किसी एक धारा, विचार या वाद से जुड़कर नहीं चले उनका जुड़ाव मात्र मानव धर्म से ही रहा। जीवन में समाज से भर्त्सना सहते हुए भी समाज सुधार हेतु प्रयास किया। संपूर्ण मानव जाति को प्रेम ,समानता एवं भाईचारे का पाठ पढ़ाने का सद्प्रयास अपने साहित्य के माध्यम से किया।

जॉन एलिया, आधुनिक उर्दू साहित्य के सबसे स्पष्ट और असाधारण कवियों में से एक, अपनी तीव्र ईमानदारी, भावनात्मक गहराई और दार्शनिक विचारों के लिए जाने जाते हैं। यह समीक्षा उनके जीवन, विषयों और साहित्यिक योगदानों का एक संक्षिप्त अवलोकन प्रस्तुत करती है। एलिया की कविता, जो अस्तित्वगत आक्रोश, दिल टूटना, आत्म-अपमान, और बौद्धिक विद्रोह से भरी हुई है, पाठकों के साथ गूंजती है क्योंकि यह मानव पीड़ा और परायापन का कच्चा और बिना छेड़े हुआ चित्रण करती है। पारंपरिक उर्दू रूपों को आधुनिक विचारों के साथ मिलाने की उनकी अनोखी क्षमता, साथ ही उनके विद्रोही व्यक्तित्व ने उन्हें एक ऐसे कवि के रूप में स्थापित किया है जिसने मानदंडों को चुनौती दी और अपने दर्दनाक ईमानदार छंदों से दर्शकों को आकर्षित किया। यह समीक्षा पत्र साहित्य पर उनके गहन प्रभाव और समकालीन समाज में उनकी निरंतर प्रासंगिकता का अन्वेषण करता है।

मृदुला गर्ग का कथा साहित्य बहुमुखी प्रतिभा संपन्न रहा है जिसमें समकालीन जीवन की समस्याओं को लेकर मार्मिक उद्घाटन हुआ है। विशेष रूप से स्वतंत्रता के बाद से व्यक्ति ,समाज के स्तर पर भिन्न-भिन्न बदलाव जो आए हैं उनका प्रसंगानुसार वर्णन उनके कहानियों की विशेषता है। विदेशी सभ्यता, बोलचाल एवं व्यवहार से व्यक्ति सभ्य नहीं बन पाता। वेशभूषा केवल बाहरी सौंदर्य में वृद्धि कराती है, आंतरिक समाधान के लिए अपने वतन की संस्कृति, मर्यादाशील का पालन करने से ही मिलता है। उर्फ सैम यह कहानी भी विदेशी सभ्यता, रहन-सहन एवं भाषा के अनुकरण से व्यक्ति और पारिवारिक दुष्परिणामों को प्रदर्शित करती है ।

जनसंख्या का तीव्रता के साथ बढ़ना, नगरीकरण और औद्योगिकीकरण की अंधाधुंध दौड़ ने वन संसाधन पर प्रतिकूल प्रभाव डाला हैं। जो वर्तमान समय में एक गंभीर चिंता का विषय हैं। दिन-प्रतिदिन वनों का घटता हुआ स्तर वातावरण में जलवायु का असमान्य होना, पारिस्थितिक असंतुलन, वन जैव विविधता को ख़तरा, बाढ़ तथा मृदा अपरदन जैसे घटनाओ को निमंत्रण दे रहा हैं । आदिकाल से मानव प्रकृति द्वारा प्रदत इस संसाधन का लाभ उठाता आया है । वन संसाधन शुद्ध वायु का एक मात्र स्त्रेत हैं जो मानव जीवन के लिए सबसे महवपूर्ण है । इसके साथ कार्बन डाई ऑक्साइड का अवशोषण भी करता हैं। फिर भी मानव इस संसाधन पर ध्यान नही दे रहा हैं। हरियाणा में सन् 2019-20 में वन के अधीन क्षेत्र 34 हजार हेक्टेयर हैं जो भौगोलिक तथा पारिस्थितिक रूप से दयनीय स्थिति रहता हैं। हरियाणा वन नीति 2006 में वर्ष 2010 तक 10% भूभाग पर वनावरण के लक्ष्य को प्राप्त करना था। परन्तु यह लक्ष्य सन् 2021 तक भी पूरा नही हो पाया हैं। समय के साथ वन क्षेत्र बढ़ने के स्थान पर कम होते जा रहे हैं। जो भविष्य में मानव के लिए एक चुनौतीपूर्ण विषय है ।

बौद्ध धर्म भारतीय साहित्य एवं संस्कृति का वह मूल्यवान बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक तथा मानवतावादी जीवन पक्ष है जो सम्पूर्ण को आलोकित करता है। बौद्ध महाकाव्य जहां एक तरफ धम्म एवं विश्व शान्ति का सन्देश देता है, वहीं यथार्थवादी चिन्तन को भी बताता है। बौद्ध महाकाव्यों में जीवन की उत्पत्ति, राज्य एवं राजत्व, सामाजिक विभाजन एवं गणतन्त्रें का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। प्रस्तुत शोध पत्र का उल्लेख बौद्ध धर्म से सम्बन्धित विभिन्न ग्रन्थों (विशेषतः अग्गना सुत्त) का राजनीतिक रूप से विश्लेषण करना है।

हिन्दी साहित्य में आत्मकथालेन का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। दलित साहित्य में तो और भी नया है। दलित आत्मकथाएं समाज का प्रामाणिक दस्तावेज एवं आईना हैं। स्मृतियों की धरोहर बचाए रहने, अतीत को समझने, समुदाय की चित्तवृत्तियों का प्रतिबिम्बन करने और स्वस्थ लोकतांत्रिक समाज को गढ़ने में इन आत्मकथाओं की महती भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। आत्मकथाओं के केंद्र में लेक का निजी जीवन होता है, समाज उसके साथ चलता है। अपनी जमीं अपना आसमांआत्मकथा में रजनी तिलक ने अपने संघर्षमय अनुभवों का विस्तृत बयान किया है, साथ ही महिलाओं के अधिकार, समानता, स्वावलंबन के लिए आवाज उठाई है। यह आत्मकथा एक ओर महिलाओं का आत्मबल बढ़ाती है तो दूसरी ओर अधिकार प्राप्ति के लिए जूझने की प्रेरणा भी देती है। एक स्त्री होने की पीड़ा एवं दलित जीवन की विसंगतियों को अभिव्यक्त करने मे रजनी तिलक सफल रही हैं। इसलिए यह दलित साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण रचना है।

पुस्तक समीक्षा

मेरा परम सौभाग्य कि हिन्दी भाषा की अत्यन्त परिपक्व लेखिका सूर्यबाला जी की पुस्तक “अलविदा अन्ना” को पढ़ने का मुझे सुअवसर मिला। लेखिका सूर्यबाला जी के विदेश प्रवास के दौरान हुए अनुभव, जो कि उनके नितान्त व्यक्तिगत अनुभव थे, उन्हें, जिस सहजता और सजीवता के साथ किसी चलचित्र की भाँति हम पाठकों के सम्मु उन्होंने प्रस्तुत किया, वह अपने आप में आश्चर्यजनक एवं प्रशंसनीय है। यह लेखिका जी का जीवन के प्रति दृष्टिकोण तो उजागर करता ही है, साथ ही उनके सरल, सहनशील और गम्भीर व्यक्तिगत का परिचय भी कराता है।

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5. भारतीय विश्वविद्यालयों में मानविकी एवं सामाजिक विज्ञानं के अधिकांश शोध हैं –
 
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