Vol.6, Issue 1
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Vol.6, Issue 1

SHODH SANCHAYAN

 

Vol.6, Issue.1, 15 Jan, 2015

ISSN  2249 – 9180 (Online)

Bilingual (Hindi & English)
Half Yearly

Print & Online

Dedicated to interdisciplinary Research of Humanities & Social Science

An Open Access INTERNATIONALLY INDEXED PEER REVIEWED REFEREED RESEARCH JOURNAL and a complete Periodical dedicated to Humanities & Social Science Research.

मानविकी एवं समाज विज्ञान के मौलिक एवं अंतरानुशासनात्मक शोध पर  केन्द्रित (हिंदी और अंग्रेजी)

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Index/अनुक्रम

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हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक इतिहास लेखन की चनौतियाँ भिन्न थीं. हिन्दी के अधिकांश प्रारंभिक इतिहासकारों ने प्राय: वृत्त संग्रहों का निर्माण किया. आचार्य शुक्ल ने पहली बार सम्पूर्ण रचनाकारों का नाम परिगणन समाविष्ट  न करने का प्रयास किया. वर्गान्तरित करने की कोशिश की. हिन्दी के  इतिहास ग्रन्थों में साहित्य इतिहासकारों की मौलिकता प्राय: सदी के पूर्वार्द्ध तक दिखती है. सदी का उत्तरार्द्ध, प्रकाशन की प्रचुरता और वौविध्य के कारण बदले माहौल की सूचना देता है. इस अवधि के इतिहास लेखन के परम्परागत मानदण्डछोटे दिखाई देते हैं. सदी के उत्तरार्द्ध के साहित्य इतिहास लेखन के लिये वैज्ञानिक सर्वेक्षण की उपादेयता उपयुक्त प्रतीत होती है. इस शोध में आलेख में सदी के अंतिम दशको के साहित्य इतिहास लेखन की समस्याओं एवं चुनौतियों का विस्तार दे विवेचन किया गया है.

This paper aims to find out the difficulties in formulaize the concept of Homonyms. Examples from both Hindi and English languages have been studied. The discourse arrived at the conclusion that Hindi language does have absolute homonyms where as English language appear to have partial homonyms.

सुप्रसिद्ध साहित्यकार और आलोचक ओमप्रकाश वाल्मीकि की सर्जनात्मकता का मुख्य लक्ष्य समतापरक तथा न्याय आधारित समाज निर्माण है. वे हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी रचनाधर्मिता मानवता का मानस रचती है. यह शोध आलेख ओमप्रकाश के सम्पूर्ण रचनाकर्म की पड़ताल करता है.

Toru Dutt was one of the distinguished poets in the canvas of Indian English poetry. This noble soul of Bengal raised the position of India in the literary world. Toru Dutt is regarded as the greatest displayer of philosophy and religion. Her finest and longest poem, ‘Savitri" is a perennial fountain of inspiration specially for Indian girls. Her poetic craftsmanship is found at its best in ‘Ancient Ballads and Legends of  Hindustan" . She is the supreme narrator and translator of 19th century.

आधुनिक कथा विधाओं की समीक्षा हेतु कथा भाषा प्रणाली को स्वकार्यता सर्व स्वीकृति नहीं हों पायी है जबकि संस्कृति काव्य शास्त्र में इसका आस्तित्व मिलता है. प्रस्तुत शोध पत्र में भाषा विमर्श का मूल्यांकन विश्लेषण किया गया है.

वेद ‘विद’ धातु दे निष्पद है जिसका अर्थ है ‘ज्ञान’. समस्त ज्ञान वेदों पर ही आश्रित है. वेदों का ज्ञान अपेक्षाकृत दूरूह होने के कारण षड वेदांगों का निर्माण हुआ जिनमें शिक्षा प्रमुख वेदांग है. क्योंकि इसमें उच्चारण विधि का प्रतिपादन किया जाता है जो वैदिक साहित्य में नितांत महत्व रखता है. मंत्रों का अशुद्ध अभीष्ट अर्थ को प्राप्त न कर फलसिद्धि का हेतु नहीं होता तथा यजमान के लिए अनिष्टकारकसिद्ध होता है. इस उच्चारण विधान के गौरव को देखते हुए प्रस्तुत विषय के अंतर्गत उच्चारण संबंधी गुण-दोषों का विवेचन किया गया है जो शिक्षा ग्रंथों का मुख्य विषय है. गुणों का ग्रहण तथा दोषों का परित्याग वेद मंत्रों का शुद्ध उच्चारण करने के लिए वेदाध्येताओं को समर्थ बनाकर मंत्रों का यथोक्त फलदायक सुरक्षित करता है. फलत: शुद्ध उच्चारण हेतु गुण-दोषों का ज्ञान आवश्यक है और यही प्रस्तुत शोध आलेख का प्रतिपाद्य है.

आजादी के बाद भारत की आम जनता के सरोकारों से प्रत्यक्ष जुड़ने वाले साहित्कार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी का साहित्य, उनकी अर्जना और चिन्तना उनके व्यक्तित्व का ही परिचायक है. व्यंग्य-रचना एवं काव्य-रचना के क्षेत्र में सक्रिय, प्रतिभा के धनी रवीन्द्रनाथ त्यागी किसी परिचय के मोहताज नहिं हैं. सरकारी नौकरी में रहते हुए भी उन्होंने निरंतर लेखन कार्य किया. उनकी रचनाएँ समकालीन विसंगतियो का बोध कराती हुई साहित्य को एक नया मुहावरा प्रदान करती हैं. उनका सहित्य हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती है.

‘मातृत्व’ एक ऐसा शब्द है जो हर नारी के व्यक्तित्व को नये आयाम प्रदान करता है. महिला उपन्यासकारों की लेखनी का कौशल उसके इस पक्ष की ओर भी गया. प्राचीनकाल में जहाँ नारी की उपादेयता मात्र मातृत्व के कारण थी. वहीं नारी चेतना में आये परिवर्तनों ने उसे जीवन के दो पायदानों पर खड़ा कर दिया है. सर्वप्रथम उसे अपना भविष्य (कैरियर) संवारना था, तो दूसरी ओर कैरियर बनाने के बाद खलीपन को भरता था और इसी प्रक्रिया में उसके भीतर उपजा  मातृत्व के प्रतिद्वन्द्व अपनी इस शास्वत रचना प्रक्रिया में  शामिल होकर नारी कहीं अपने आस्तित्व का बोध करना चाहती है तो कहीं- कहीं  मातृत्व को लिजलिजी पुरुष परम्परा का प्रतीक मानकर मातृत्व को एक सिरे से खरीज कर देती है. आज की व्यस्त भागदौड़ भरी जिंदगी, भौतिक सुविधाओं की ललक, स्वचेतना, सामाजिक मूल्यों का विघटन, नारी मुक्ति ने पारम्परिक समाज की रुपरेखा को बहुत हद तक बदल दिया है.अपनी देह को अपने अधिकार में लेकर, इन महिला उपन्यासकारों (चित्र मुद्गल, प्रभा खेतान, मृदुला गर्ग, राजी सेठ, ममता कालिया, मन्नू भंडारी..........)की नारी पात्राएँ अपनी रचनाशीलता का मुकाम मातृत्व में पातीं है. अपनी बुनावट को अपने आँगन में बढ़ता, पनपता देखने की इच्छा मन में पाले है तो कहीं मातृत्व से बचने के लिए गर्भ निरोधक उपायों को अपनी यौन इच्छाओं की पूर्ति के लिए उपयोग में लाने लगीं. वैवाहिक निष्ठा, नारी कौमर्य, यौन नैतिकता जैसे उपादनों से दूर अपनी स्वतंत्र सत्ता में अपना निहित खोजती ये नारी पात्राएँ सामाजिक  व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहीं हैं.

वर्तमान समय में मानवाधिकार विश्व चिंतन का प्रमुख विषय है. जिनका केंद्र बिंदु मानव-मूल्य है, जो दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है. ऐसी चिंताजनक विषय परिस्थितीयों पर नियंत्रण पाने के लिए हमें मानवता के संरक्षक वैदिक संस्कृति को पुन: अपनाना होगा. वैदिक मूल्य न केवल भारतीय साहित्य की उच्चता का बोध कराता है, बल्कि भारतीय समाज की  अक्षुण्ण सांस्कृतिक परम्परा का वाहक भी है. स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी में मानवाधिकार की अभिव्यक्ति कितनी सफलता से हो पायी है. प्रस्तुत शोध आलेख इसी चिंतन का प्रतिफलन है.

सूफी काव्य में विरहानुभूति आध्यात्मिक साधना का प्रथम सोपान है. तुलसी की सीता और जायसी की नागमती के विरह भाव में अदभुय समानता है. सूफी कवियों के बारहमासे के वर्णन में समान दृष्य, ध्वनि, बिम्ब, प्रतीक तथा प्राकृतिक उपादनों का प्रयोग किया गया है. सूफी कवियों ने प्रकृति के सजीव बिम्ब और कवि प्रसूत कल्पना द्वारा विरहिणी के चित्ता की व्यथा को रूपायित किया है. उन्होंने कवि-परमरा में वर्णित अलंकारों का प्रयोग किया है. उन्होंने विरहिणी के चित्त की व्यथा को प्रकृति के ब्याज से चित्रित किया है.

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जगह-जगह साम्राज्य विरोधी क्रन्तिकारियां हो रहीं थीं. १९४५-४७ में भारतीय जनता का क्रन्तिकारी उभार इस प्रक्रिया का पहला चरण था. कांग्रेस ब्रिटिश कूटनीति के नागपाश में पूरी तरह बंध चुके थे. १९०५ में बंगाल विभाजन की प्रक्रिया स्वरूप भारत में स्वदेशी क्रांति की जो लहर आई उससे अंग्रेज भयभीत हो गये और उन्होंने देश को सम्प्रदायिकता के हवाले करना शुरू कर दिया. डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने कविता संग्रह ‘सदियों के सोये जाग उठे’ की कविताओं के माध्यम से स्वतंत्रता संघर्ष की तत्कालिक पैर्स्थितियों को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया तथा सम्प्रदायिक ताकतों का विरोध कर जनता को जाग्रत करने तथा उसको सही मार्गदर्शन कराने का यथेष्ठ प्रयास किया है. इन कविताओं का अध्ययन  आज के परिप्रेक्ष्य में कितना सार्थक है इसका अनुमान आज की राजनीतिक समस्याओं को देखकर ही लगाया जा सकता है. अत: शर्मा जी क कविताओं में स्वतंत्रता संघर्ष तथा साम्प्रदायिक शक्तियों का विरोध परखने का प्रयत्न किया है.

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जगह-जगह साम्राज्य विरोधी क्रन्तिकारियां हो रहीं थीं. १९४५-४७ में भारतीय जनता का क्रन्तिकारी उभार इस प्रक्रिया का पहला चरण था. कांग्रेस ब्रिटिश कूटनीति के नागपाश में पूरी तरह बंध चुके थे. १९०५ में बंगाल विभाजन की प्रक्रिया स्वरूप भारत में स्वदेशी क्रांति की जो लहर आई उससे अंग्रेज भयभीत हो गये और उन्होंने देश को सम्प्रदायिकता के हवाले करना शुरू कर दिया. डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने कविता संग्रह ‘सदियों के सोये जाग उठे’ की कविताओं के माध्यम से स्वतंत्रता संघर्ष की तत्कालिक पैर्स्थितियों को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया तथा सम्प्रदायिक ताकतों का विरोध कर जनता को जाग्रत करने तथा उसको सही मार्गदर्शन कराने का यथेष्ठ प्रयास किया है. इन कविताओं का अध्ययन  आज के परिप्रेक्ष्य में कितना सार्थक है इसका अनुमान आज की राजनीतिक समस्याओं को देखकर ही लगाया जा सकता है. अत: शर्मा जी क कविताओं में स्वतंत्रता संघर्ष तथा साम्प्रदायिक शक्तियों का विरोध परखने का प्रयत्न किया है.

वर्तमान भारतीय समाज में स्त्री की सामाजिक हैसियत का दोहरा प्रतिबन्ध विद्यमान है. आधुनिक स्त्री की आर्थिक स्ववलम्बनता, स्वतन्त्र चिंतन, स्वछन्द भाव एवं विकास पथ पर बढ़ते चरण उसकी मजबूत हैसियत को प्रतिपदित करते हैं, लेकिन परम्परागत मान्यताओं, रूढ़ अवधारणाओं एवं पुरुषवादी अहं से जकड़ती स्त्री की मानसिक एवं भावनात्मकता समाज में उसकी कमजोर सत्ता का प्रतिफलन है. यही करण है कि वर्तमान समाज स्त्री की स्थिति को लेकर अनेक सवालों से घिरा हुआ है. प्रस्तुत शोध आलेख समाज में मौजूद स्त्री की सामाजिक हैसियत के दोनों स्वरूपों को मुल्यंकित करने का प्रयास है.

वर्तमान सदी में प्रवेश करते हुए मानव समाज ने यातायात एवं संचार क्षेत्र में अदभुद प्रगति कर ली थी. विश्व एक बड़े गाँव का आकर गृहण कर चुका है, किन्तु यह बड़ा विश्व बाजार का रूप ले चुका है जिसमें धनोपार्जन ही सफलता का पर्याय है. समस्त मानव मूल्य इस बाजार को समर्पित हो गये हैं. इसके विरुद्ध मानव संघर्ष भी चल रहा है. इस आधुनिक परिदृश्य को संस्कृत रचनाकारों ने बिना किसी साहित्यिक आन्दोलन के अपने सहज साहित्य कर्म के माध्यम से अभिव्यक्ति किया है. आधुनिक विश्व की समस्याओं को उन्होंने सहज, सरल शैली में जिस तरह प्रस्तुत किया है उसमें भविष्य की अभिव्यति की संभावना है. प्रस्तुत शोध लेख आधुनिक संस्कृत रचनाकारों के युग दायित्व के इस निर्वाह को प्रस्तुत करता है.

It was interested in establishing English as the medium of education, however it suggested that it should not be insisted upon only when a sufficient knowledge of English has been gained.    it is known as Wood's Dispatch because it was written at the insistence of Charles Wood. The Dispatch mentioned that the aim of the educational system and policy in India should be dillusion of arts, science and philosophy could be profited by them. In the time of Dalhousie in 1854, a parliamentary committee appointed for the purpose of re-organizing educational system in India made its recommendations, on the basis of which an educational Dispatch dated 19th July, 1854 presented its report.

काशीनाथ सिंह द्वारा लिखा गया ‘उपसंहार’ उपन्यास का याना-बाना महाभारत की उत्तर कथा को लेकर बुना गया है, परन्तु परोक्ष रूप से यह समकालीन यथार्थ की सशक्त अभिव्यक्ति है. और इसलिए यह  उपन्यासआज अत्यंत प्रासंगिक है. युद्ध, युद्ध से उत्पन्न तबाही, अकाल, महामारी, राजनैतिक और सामाजिक स्वच्छाचारिता  तथा संस्कृत अस्ख्लन इस उपन्यास के केंद्र में है. प्रस्तुत शोध लेख समकालीन प्रासंगिकता के सन्दर्भ में इसकी जाँच पड़ताल करता है.

भारतीय धर्म साधना में दलित संतों एवं भक्तों का प्रमुख स्थान रहा है. मध्यकाल के भक्ति आन्दोलन में दलितसंत रचनाकारों ने निराकार की साधना के माध्यम से मानव मात्र की एकता का रहस्योद्घाटन करते हुए आध्यात्मिक मार्गदर्शन किया है. संत शिवनारायण इन्ही में से एक थे जिनका संबध कबीर पंथ से जोड़ा जाता है.प्रस्तुत शोध में एतिहासिक दृष्टि से संत १०८ स्वामी श्री शिवनारायण जी का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है.

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5. भारतीय विश्वविद्यालयों में मानविकी एवं सामाजिक विज्ञानं के अधिकांश शोध हैं –
 
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